बुलडोजर की राजनीति : इमरजेंसी से योगी तक
बुलडोजर पहली बार चर्चा में आज नहीं आया. उसका असली शोर 1975 की इमरजेंसी में गूंजा था. जब दिल्ली की झुग्गियों पर बुलडोजर चले और आवाज़ें दबा दी गईं.
संजय गांधी के शहरी “सौंदर्यकरण” के नाम पर हज़ारों गरीब परिवार उजाड़े गए, बिना नोटिस और बिना विकल्प के.
लेकिन तब मीडिया चुप था. सेंसरशिप थी. सवाल पूछने का हक नहीं था. आज बुलडोजर सिर्फ एक मशीन नहीं बल्कि सियासी ब्रांड बन चुका है.
योगी आदित्यनाथ के दौर में इसे ‘कानून का हथियार’ बताया जाता है. अपराधियों, माफियाओं और दंगाइयों की अवैध संपत्तियों पर कार्रवाई होती है. पर सवाल यह भी है क्या हर बार कानून का due process पूरा होता है? क्या कार्रवाई सभी पर समान रूप से होती है या चुनिंदा चेहरों पर?इमरजेंसी में बुलडोजर था सत्ता की ताकत का प्रदर्शन. आज का बुलडोजर है राजनीतिक नेरेटिव का प्रतीक.
कभी डर से चुप रहते थे आज हम ट्रेंड बनाते हैं "बुलडोजर बाबा", "सख़्त CM", या "Targeted Action" नेरेटिव तय होता है सवाल पीछे छूट जाते हैं. तो फर्क कितना है इमरजेंसी और आज के बुलडोजर में? या सिर्फ तरीका बदला है मंशा नहीं?
📝 सोचिएगा जरूर...
नोट :- इमरजेंसी पार्ट 1 ( ✍️ क्रेडिट: इस पोस्ट में जिन ऐतिहासिक तथ्यों और विश्लेषण का ज़िक्र है वह पत्रकार सौरभ द्विवेदी की रिसर्च और वीडियो से प्रेरित है. )
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