एक कप चाय

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे के बाजार में, जहाँ बारिश की फुहारें हवा को नम और भारी बनाती थीं, रामू का चाय का ठेला दिन-रात लोगों की चहल-पहल का हिस्सा था।

चालीस वर्षीय रामू, उसकी पत्नी सरिता, बारह साल की उनकी बेटी छाया और वफादार कुत्ता मोती एक तंगहाल मगर प्यार से भरा परिवार थे। 

रामू की आँखों में हमेशा एक अनकही चिंता रहती थी—कर्ज का बोझ और छाया की स्कूल फीस। बाजार की भीड़ में उसका ठेला भले ही मशहूर था, मगर आमदनी मुश्किल से घर चलाती थी। 

सरिता सुबह-शाम चाय के कुल्हड़ धोती और ग्राहकों से हँसकर बात करती, जबकि छाया स्कूल से लौटकर किताबों में डूबी रहती। मोती, जो कभी सड़क पर भटकता था, अब परिवार का अभिन्न हिस्सा था और छाया की हर शरारत में उसका साथी।

एक बारिश भरी शाम, जब बाजार में सन्नाटा छाने लगा था, रामू को ठेले की बेंच पर एक चमड़े का बटुआ पड़ा मिला। उसने उसे उठाया और खोला तो उसकी आँखें चमक उठीं—अंदर ढेर सारी नकदी थी, इतनी कि वह कर्ज चुका सकता था, छाया की फीस भर सकता था, शायद ठेले के लिए नया सामान भी ले सकता था। 

उसका मन ललचाया, और उसने बटुआ अपनी कमीज के अंदर छिपा लिया। मगर तभी छाया, जो पास ही बैठकर गणित हल कर रही थी, ने उसे देख लिया। “पापा, ये किसका है? हमें इसका मालिक ढूंढना चाहिए,” उसने मासूमियत से कहा।

 रामू का चेहरा सख्त हो गया। “तू छोटी है, ये बातें नहीं समझेगी,” उसने झिड़क दिया, मगर उसका दिल डोल रहा था।घर लौटकर रामू ने सरिता को बटुआ दिखाया। सरिता ने एक लंबी सांस ली और बोली, “रामू, ये पैसा हमें कुछ दिन के लिए बचा सकता है। कर्जवाले रोज धमकाते हैं। बस थोड़ा वक्त चाहिए।

“ मगर छाया, जो चुपके से सुन रही थी, ने फिर कहा, “पापा, ये गलत है। दादाजी कहते थे, ईमानदारी से बड़ा कोई धन नहीं।“ रामू का मन और भारी हो गया। अगले दिन उसे पता चला कि बटुआ लक्ष्मी का था, एक विधवा जो बाजार में मसाले की दुकान चलाती थी। 

लक्ष्मी का बेटा बीमार था, और वह उन पैसों से उसका इलाज करवाने वाली थी। यह सुनकर रामू का दिल बैठ गया, मगर कर्ज की मार और परिवार की जरूरतें उसे बार-बार लालच की ओर खींच रही थीं।

बाजार में मेले की रात थी। रंग-बिरंगी लाइटें, मिठाइयों की दुकानें और बच्चों की हँसी से माहौल जीवंत था। रामू बटुआ जेब में लिए मेले में गया, यह सोचकर कि शायद वह कोई फैसला कर लेगा। 

मोती, जो उसका पीछा कर रहा था, बार-बार उसकी टांगों से टकराता, मानो उसे कुछ कहना हो। भीड़ में रामू ने लक्ष्मी को देखा, जो उदास चेहरा लिए इधर-उधर पूछताछ कर रही थी। रामू रुक गया। एक तरफ उसका परिवार था, जो उसकी गलती से भी राहत पा सकता था; दूसरी तरफ लक्ष्मी की बेबसी और छाया की मासूम आँखें। 

उसका मन जोर-जोर से धड़क रहा था। तभी मोती ने भौंकना शुरू किया, और छाया, जो मेले में माँ के साथ थी, पास आ गई। उसने पिता की आँखों में देखा और धीरे से कहा, “पापा, आप सही काम करेंगे, मुझे पता है।

“रामू ने एक गहरी सांस ली और लक्ष्मी की ओर बढ़ा। “ये आपका बटुआ है,” उसने कांपते हाथों से उसे थमाया। लक्ष्मी की आँखें छलक आईं। “तुमने मेरा जीवन बचा लिया,” उसने कहा। उसकी ईमानदारी से प्रभावित होकर लक्ष्मी ने रामू को कर्ज में मदद का वादा किया।

 मेले की चमक में छाया ने गर्व से अपने पिता को गले लगाया। सरिता, जो पास खड़ी थी, ने राहत की सांस ली और मुस्कुराई। मोती पूंछ हिलाता हुआ सबके बीच कूद पड़ा, मानो वह भी खुशी में शामिल हो। बारिश अब थम चुकी थी, और आसमान साफ हो रहा था। रामू ने ठेले पर लौटकर एक कप चाय बनाई। उसने कप को हाथ में थामा और सोचा—शायद ईमानदारी ही वह रास्ता है, जो उसे और उसके परिवार को सच्ची रोशनी देगा।

Comments