अम्मी की तालीम अब्बू की राह
मोज़क्किर गलगोटिया यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में अपने छोटे से कमरे में बैठा था। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की पर हल्के-हल्के टकरा रही थीं और कमरे में टेबल लैंप की पीली रोशनी फैली हुई थी।
मोज़क्किर 22 साल का एक संवेदनशील और विचारशील लड़का पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था। उसकी माँ रेहाना खातून मोतीपुर (बिहार) के एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं।
रेहाना ने 2007 से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था और अपने बच्चों मोज़क्किर और उसके बड़े भाई मोबश्शीर को भी शब्दों की ताकत सिखाई थी।
मोज़क्किर के पिता मुख़्तार साहब एक वकील थे जिनके लिए इंसाफ़ से बड़ा कोई धर्म नहीं था। मोज़क्किर का बड़ा भाई मोबश्शीर एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर था जो हमेशा उसे सच्चाई और गहराई से लिखने की सलाह देता था।
आज मोज़क्किर को एक लेख लिखना था—‘सच की कीमत’ जो एक न्यूज़ पोर्टल पर छपने वाला था। यह लेख उसके लिए सिर्फ़ एक असाइनमेंट नहीं बल्कि उसकी तालीम और उसूलों की परीक्षा थी।
मोज़क्किर ने लैपटॉप खोला और लिखना शुरू किया। उसे याद आया कि कुछ हफ्ते पहले उसने एक स्थानीय नेता के भ्रष्टाचार की खबर पर काम किया था। उसने डेटा एनालिसिस के ज़रिए पाया कि नेता ने गाँव के स्कूल के लिए आए फंड को हड़प लिया था।
यह खबर उसे छापने से पहले अपने प्रोफेसर को दिखानी थी। लेकिन प्रोफेसर ने कहा “मोज़क्किर यह खबर सच हो सकती है पर क्या तुम इसके नतीजों के लिए तैयार हो? तुम्हें धमकियाँ मिल सकती हैं।” यह सुनकर मोज़क्किर ठिठक गया। उसे अपने अब्बू की बात याद आई “इंसाफ़ से बड़ा कोई मुनाफ़ा नहीं।” लेकिन डर भी लग रहा था। क्या वह सच को सामने लाने की हिम्मत रखता था?
मोज़क्किर का मन दो राहों पर था। एक तरफ़ अम्मी की तालीम थी जो उसे सच की ताकत सिखाती थी। बचपन में अम्मी ने उसे एक कहानी सुनाई थी एक चरवाहे की जो झूठ बोलकर सबका भरोसा खो बैठा।
अम्मी ने कहा था, “मोज़क्किर शब्दों में जादू होता है पर झूठ के जादू से सिर्फ़ अंधेरा फैलता है।” दूसरी तरफ़ अब्बू का ज़मीर था जो उसे इंसाफ़ के लिए लड़ने की प्रेरणा देता था।
मोज़क्किर को याद आया कि कैसे अब्बू ने एक गरीब किसान का केस मुफ्त में लड़ा था सिर्फ़ इसलिए कि वह सही था। लेकिन अब मोज़क्किर को अपनी राह खुद चुननी थी। उसने अपने भैया मोबश्शीर को फोन किया। मोबश्शीर ने कहा, “अगर सच लिखने से डर लगता है तो समझो कि तुम सही राह पर हो। डर का मतलब है कि तुम्हें उस सच की कीमत समझ आ रही है।” मोज़क्किर ने फैसला किया—वह खबर को छापेगा, चाहे जो हो।
मोज़क्किर ने अपनी खबर को न्यूज़ पोर्टल पर सबमिट कर दिया। कुछ ही दिनों में खबर वायरल हो गई। गाँव वाले सड़कों पर उतर आए और उस नेता के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गया। लेकिन इसके साथ ही मोज़क्किर को धमकियाँ भी मिलने लगीं।
एक रात उसके फोन पर एक अनजान नंबर से कॉल आया। दूसरी तरफ़ से एक भारी आवाज़ आई, “अगर अपनी और अपने परिवार की खैर चाहते हो तो चुप हो जाओ।”
मोज़क्किर का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसे लगा कि उसने बहुत बड़ी गलती कर दी। उसने तुरंत अब्बू को फोन किया। अब्बू ने शांत स्वर में कहा “बेटा, सच की राह पर कांटे बिछे होते हैं। लेकिन जो इन कांटों से डरता है, वह कभी मंज़िल तक नहीं पहुँचता। मैं तुम्हारे साथ हूँ।” अब्बू की बातों ने मोज़क्किर को हिम्मत दी। उसने फैसला किया कि वह डरेगा नहीं।
मोज़क्किर ने अपनी खबर के समर्थन में और सबूत जुटाए। उसने गाँव वालों से बात की और उनकी मदद से एक और लेख लिखा जिसमें उसने नेता के और कारनामों का खुलासा किया। इस बार उसने अपने लेख में अम्मी की सीख और अब्बू के उसूलों का ज़िक्र भी किया। उसने लिखा, “मेरी अम्मी ने मुझे शब्दों से रिश्ता जोड़ना सिखाया, और मेरे अब्बू ने मुझे ज़मीर की राह दिखाई। यह खबर मेरे लिए सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि मेरे उसूलों की लड़ाई है।” धीरे-धीरे, मोज़क्किर की हिम्मत रंग लाई। नेता को गिरफ्तार कर लिया गया, और गाँव के स्कूल के लिए दोबारा फंड जारी हुआ। मोज़क्किर को धमकियाँ मिलनी बंद हो गईं। उसने राहत की साँस ली।
मोज़क्किर की सबसे बड़ी लड़ाई बाहर से नहीं बल्कि उसके अंदर से थी। उसे डर था कि उसकी हिम्मत उसके परिवार को मुसीबत में डाल सकती थी। लेकिन अम्मी की तालीम और अब्बू की राह ने उसे सिखाया था कि सच की कीमत चुकानी पड़ती है। उसने सोचा, “अगर मैं आज चुप हो गया तो कल मेरे बच्चे मुझसे क्या सीखेंगे? क्या मैं उन्हें वही तालीम दे पाऊँगा जो अम्मी ने मुझे दी?” इस सवाल ने उसे हिम्मत दी। उसने अपने डर को हराया और सच की राह चुनी।
मोज़क्किर अपने हॉस्टल के कमरे में बैठा था। बारिश थम चुकी थी और खिड़की से हल्की धूप झांक रही थी। उसने अपने लैपटॉप पर एक नया लेख शुरू किया—“सच की जीत”। उसने लिखा, “मेरी अम्मी ने मुझे शब्दों की ताकत सिखाई और मेरे अब्बू ने मुझे ज़मीर की राह दिखाई। आज मैंने जाना कि सच की राह मुश्किल हो सकती है पर उसका फल हमेशा मीठा होता है।” मोज़क्किर ने मुस्कुराते हुए लेख पूरा किया। उसे यकीन था कि उसकी तालीम और उसके उसूल हमेशा उसकी कलम में ज़िंदा रहेंगे।
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