टोपी शुक्ला: एक दोस्ती, एक सवाल और एक समाज का आईना

 टोपी शुक्ला: एक दोस्ती, एक सवाल और एक समाज का आईना


लेखक: राही मासूम रज़ा


कभी-कभी कुछ किताबें केवल पढ़ने के लिए नहीं होतीं वे हमारे भीतर गूंजने के लिए लिखी जाती हैं। "टोपी शुक्ला" ऐसी ही एक किताब है। यह न केवल दो दोस्तों की कहानी है बल्कि उस पूरे समाज का दस्तावेज़ है जो धर्म, जाति और पहचान के सवालों से जूझता है  और कभी-कभी हार भी जाता है।


कहानी की जड़ें


टोपी शुक्ला एक हिंदू लड़का है और उसका सबसे अच्छा दोस्त इश्तियाक़ मुसलमान है। दोनों की दोस्ती उस मासूमियत से शुरू होती है जिसे धर्म की दीवारें नहीं तोड़ पातीं। लेकिन जैसे-जैसे समाज की हकीकतें दस्तक देती हैं, यह दोस्ती भी सवालों में घिरने लगती है। क्या एक हिंदू और मुसलमान की दोस्ती उतनी ही सहज हो सकती है जितनी बचपन में थी? क्या समाज उन्हें एक-दूसरे से अलग देखना छोड़ सकता है?


राही मासूम रज़ा की कलम से निकली सच्चाई


लेखक ने जिस समय यह उपन्यास लिखा, वह दौर भारत में सांप्रदायिक तनावों से भरा हुआ था। लेकिन टोपी शुक्ला किसी धर्म विशेष पर सवाल नहीं उठाती — यह उन सोचों पर वार करती है जो धर्म के नाम पर इंसानियत को खंडित करती हैं।


राही मासूम रज़ा की भाषा आम बोलचाल की है, लेकिन हर शब्द दिल में उतरता है। वे व्यंग्य का इस्तेमाल इस खूबसूरती से करते हैं कि पाठक मुस्कुराता भी है और सोच में भी पड़ जाता है।


वर्तमान संदर्भ में क्यों ज़रूरी है यह किताब?


आज जब समाज फिर से पहचान और धर्म की बहसों में उलझा हुआ है, टोपी शुक्ला हमें याद दिलाती है कि सच्ची दोस्ती, इंसानियत और समझदारी, इन तमाम भेदभावों से ऊपर होती है।


यह उपन्यास न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि अगली पीढ़ी "हम और वे" के फर्क को पहचान सके और इंसानियत को सबसे ऊपर रख सके।


अंत में…


टोपी शुक्ला एक किताब नहीं, एक सवाल है — जो आज भी उतना ही ज़िंदा है जितना उस समय था। क्या हम टोपी और इश्तियाक़ की दोस्ती को बचा पाएंगे?

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