ख़ामोश आवाज़ें


शहर की चमचमाती इमारतों के बीच एक टीवी स्टूडियो था, जहाँ रात के नौ बजे का शो शुरू होने वाला था। स्टूडियो में रंग-बिरंगी लाइटें, तेज़ संगीत और स्क्रीन पर उभरती हेडलाइंस: “पाकिस्तान का दुस्साहस! भारत देगा जवाब?” एंकर रविशंकर तिवारी की आवाज़ हॉल में गूँज रही थी। उनकी आँखें चमक रही थीं, जैसे वे कोई जंग जीतने जा रहे हों। सामने के स्क्रीन पर एक पाकिस्तानी रिटायर्ड मेजर का चेहरा उभरा। मेजर साहब उर्दू में गरज रहे थे, “हमारी फौज तैयार है, भारत को जवाब मिलेगा!”

रविशंकर ने माइक को और करीब खींचा। “देखिए, ये है पाकिस्तान का असली चेहरा! लेकिन हम चुप नहीं रहेंगे!” स्टूडियो में बैठे चार पैनलिस्ट एक साथ चिल्लाने लगे। एक ने “युद्ध” का नारा लगाया, दूसरे ने “सर्जिकल स्ट्राइक” की वकालत की। तीसरा इतिहास की किताब खोलकर 1971 की जंग की बात करने लगा। स्टूडियो में हंगामा था, और टीवी स्क्रीन पर ग्राफिक्स की बौछार। दर्शकों के लिए यह तमाशा था—टीआरपी की गारंटी। रविशंकर की आवाज़ में उन्माद था, और हर ब्रेक के बाद नई हेडलाइन: “क्या भारत अब करेगा पलटवार?”

लेकिन स्टूडियो से सौ किलोमीटर दूर, एक छोटे से गाँव में, सुनीता देवी अपने बेटे की तस्वीर को सीने से लगाए रो रही थीं। उनका बेटा, विजय, दो साल पहले पुलवामा हमले में शहीद हुआ था। उस रात टीवी पर ख़बर आई थी—“40 जवान शहीद, देश में गुस्सा।“ फिर कुछ दिन तक नेताओं के बयान चले, मंत्रियों के दौरे हुए, और बड़े-बड़े वादे किए गए। लेकिन उसके बाद? विजय की कहानी, उसकी माँ का दर्द, उसकी छोटी बहन रानी का टूटा सपना—सब गायब। सुनीता को आज भी समझ नहीं आया कि उनका बेटा कैसे मारा गया। कोई सुरक्षा क्यों नहीं थी? कोई जवाब क्यों नहीं देता?

सुनीता का घर मिट्टी का था, जिसमें एक बल्ब की रोशनी और कुछ पुरानी यादें थीं। विजय की वर्दी अभी भी अलमारी में टँगी थी। उसकी बहन रानी, जो बारहवीं में पढ़ रही थी, माँ को चुप कराने की कोशिश करती। लेकिन सुनीता का दर्द कम नहीं होता था। “मेरा विजय देश के लिए मरा, लेकिन देश उसे भूल गया,” वे बुदबुदातीं।

गाँव के चौपाल पर एक छोटा सा टीवी था, जहाँ लोग रविशंकर का शो देख रहे थे। स्क्रीन पर वही चीख-पुकार, वही पाकिस्तानी मेजर की धमकियाँ। गाँव के रामू काका ने गुस्से में रिमोट उठाया और टीवी बंद कर दिया। “ये सब नौटंकी है। हमारे विजय की बात कोई नहीं करता। बस पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्लाते हैं।“ गाँव वाले चुप हो गए। किसी को जवाब नहीं सूझा। सुनीता की ख़ामोश आवाज़ फिर अनसुनी रह गई।

उधर, दिल्ली में एक युवा यूट्यूबर, अखिल, ने कुछ अलग करने की ठानी। अखिल का यूट्यूब चैनल छोटा था, लेकिन उसका जुनून बड़ा। उसे टीवी की चीख-पुकार से नफ़रत थी। “ये लोग देश की बात नहीं करते, बस शोर मचाते हैं,” वह अपने दोस्तों से कहता। अखिल ने फैसला किया कि वह शहीदों के परिवारों की कहानियाँ दुनिया तक पहुँचाएगा। उसने सुनीता देवी और अन्य परिवारों से संपर्क किया।

अखिल गाँव पहुँचा। सुनीता ने उसे अपने घर बुलाया। मिट्टी की दीवारों के बीच बैठकर सुनीता ने रोते हुए बताया, “मेरे बेटे को भेजा गया, लेकिन कोई इंतजाम नहीं था। कोई हमें नहीं पूछता। हमारी आवाज़ कौन सुनेगा?” रानी ने भी अपनी बात रखी, “भैया के बिना मेरी पढ़ाई अधूरी है। मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन अब पैसे नहीं हैं।“ अखिल ने सब रिकॉर्ड किया। उसने अन्य शहीदों के परिवारों से भी बात की—किसी की बेटी की शादी रुक गई थी, किसी का बेटा स्कूल छोड़ चुका था।

अखिल ने रात-दिन मेहनत कर एक वीडियो बनाया। उसका शीर्षक था: “ख़ामोश आवाज़ें: शहीदों के परिवारों की अनसुनी कहानियाँ।“ वीडियो में सुनीता की आँखों का दर्द, रानी की टूटी उम्मीदें और अन्य परिवारों की व्यथा थी। अखिल ने वीडियो अपलोड किया। कुछ ही घंटों में वीडियो वायरल होने लगा। लोग कमेंट्स में लिख रहे थे, “ये है असली भारत की कहानी।“ कुछ ने लिखा, “शहीदों के परिवारों को इंसाफ़ दो।“ अखिल को लगा कि उसका मिशन कामयाब हो रहा है।

लेकिन अगले दिन सब बदल गया। अखिल का यूट्यूब चैनल सस्पेंड कर दिया गया। कारण? “कम्युनिटी गाइडलाइंस का उल्लंघन।“ अखिल हैरान था। उसने तो सिर्फ़ सच दिखाया था। फिर सोशल मीडिया पर तूफ़ान आ गया। उसे “देशद्रोही” कहकर ट्रोल किया जाने लगा। उसके फोन पर मीम्स और धमकियाँ आने लगीं। एक मैसेज में लिखा था, “पाकिस्तानी वक्ता बुलाने की हिम्मत कैसे की?” अखिल को समझ नहीं आया। उसने तो कोई पाकिस्तानी वक्ता बुलाया ही नहीं था। उसने सिर्फ़ सुनीता और अन्य परिवारों की बात दुनिया तक पहुँचाई थी।

अखिल ने अपने दोस्तों से बात की। एक दोस्त ने कहा, “भाई, तूने गलत लोगों को नाराज़ कर दिया। ये टीवी वाले, ये बड़े चैनल, इन्हें सच नहीं चाहिए। इन्हें बस टीआरपी चाहिए।“ अखिल निराश हो गया। उसने सोचा, क्या सच बोलना इतना मुश्किल है? लेकिन उसने हार नहीं मानी। उसने अपने ट्विटर पर वीडियो का लिंक शेयर किया और लिखा, “सुनीता देवी की आवाज़ को दबाया जा सकता है, लेकिन सच को नहीं।“ कुछ लोग उसके साथ आए, लेकिन ट्रोल्स का शोर ज़्यादा था।

इधर, रविशंकर का शो अगले दिन फिर चला। वही पाकिस्तानी मेजर, वही चीख-पुकार। स्क्रीन पर ग्राफिक्स की बमबारी और हेडलाइंस का तूफ़ान। लेकिन इस बार एक दर्शक ने लाइव कमेंट किया, “सुनीता देवी की बात क्यों नहीं करते? शहीदों के परिवार कहाँ हैं?” रविशंकर ने कमेंट पढ़ा, फिर हँसते हुए बोला, “हम देश की बात करते हैं, आप हमें सिखाएँगे?” स्टूडियो में हँसी गूँजी। स्क्रीन पर अगली हेडलाइन चली: “विपक्ष का नया बयान, देशद्रोह या मजाक?”

सुनीता की आवाज़ फिर दब गई। उस रात गाँव में बिजली चली गई। चौपाल का टीवी बंद हो गया। अंधेरे में सुनीता ने विजय की तस्वीर को फिर से सीने से लगाया। उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन होंठों पर एक सवाल: “मेरा बेटा देश के लिए मरा, लेकिन देश उसे क्यों भूल गया?” रानी ने माँ का हाथ थामा और कहा, “माँ, मैं पढ़ूँगी। भैया का सपना पूरा करूँगी।“ सुनीता ने बेटी को गले लगाया, लेकिन उनका दर्द वही रहा।

दिल्ली में अखिल अपने छोटे से कमरे में बैठा था। उसका चैनल बंद था, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं टूटी। उसने एक नया चैनल शुरू करने का फैसला किया। “ख़ामोश आवाज़ें” उसका मिशन था। वह जानता था कि रास्ता मुश्किल है। टीवी की चमक, सोशल मीडिया का शोर और सत्ता का दबाव—सब उसके ख़िलाफ़ थे। लेकिन सुनीता की आँखों का दर्द उसे सोने नहीं देता था।

मोतीपुर की गलियों में, जहाँ सुनीता का घर था, एक नई सुबह आई। रामू काका ने गाँव वालों को इकट्ठा किया। “हमें सुनीता की आवाज़ को आगे ले जाना है,” उन्होंने कहा। गाँव वालों ने फैसला किया कि वे मिलकर रानी की पढ़ाई का इंतजाम करेंगे। सुनीता को पहली बार लगा कि शायद उनकी आवाज़ कहीं न कहीं सुनी जा रही है।

लेकिन टीवी स्टूडियो में वही शोर जारी था। रविशंकर की आवाज़ गूँज रही थी, “पाकिस्तान को जवाब दो!” और सुनीता की ख़ामोश आवाज़, विजय की अधूरी कहानी, रानी के सपने—सब उस शोर में कहीं खो गए।


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